२५ मार्च, १९७२

 

   उस दिन आपने अपने' शरीरके अंतर्दर्शनके बात कही थी, यह संक्रमणकालीन शरीर...

 

हां, वह ऐसा ऐसा था । वह मैं स्वयं थी । मैंने अपने-आपको दर्पणमें नहीं देखा था : मैंने अपने-आपको यूं देखा था (माताजी सिर झुकाकर अपने शरीरपर नजर डालती है), मै.. मैं ऐसी थी ।

 

  यह पहली बार था । मेरा ख्याल है कि यह सवेरे चार बजेकी बात है । यह बिलकुल स्वाभाविक था- -- मैंने दर्पणमें नहीं देखा, मै बिलकुल स्वाभाविक थी । मुझे केवल वही याद है जो मैंने देखा था (सीनेसे कमरतकका इशारा) । मेरे ऊपर सिर्फ एक परदा-सा था । इसलिये मैंने केवल.. धड़, सीनेसे कमरतक, बिलकुल भिन्न था : न स्त्री, न पुरुष ।

 

   और वह सुन्दर था । उसका आकार बहुत, बहुत, छरहरा और बहुत कोमल था -- बहुत छरहरा, परंतु दुबला नहीं । और त्वचा बहुत सफेद थी; त्वचा मेरी त्वचा जैसी ही थी । सारा आकार बड़ा सुन्दर था, पर था अलैंगिक -- यह न कहा जा सकता था कि स्त्री है या पुरुष । सेक्स गायब हो गया था और यहां मी (माताजी छातीकी ओर इशारा करती हैं), यह सब न था । पता नहीं कैसे कहा जाय । वह केवल एक सादृश्य था, लेकिन कोई आकार न था (माताजी सीनेको छृती हैं), इतना भी नहीं जितना पुरुषोंमें होता है । बहुत गोरी त्वचा, सब कुछ ए_कदम समतल, मानों कोई पेट न था ! आमाशय -- आमाशय न था । सब कुछ बहुत तनु था । हा, तो मैंने उसपर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया, क्योंकि मैं स्वयं वैसी

 


थी और मुझे वह बहुत स्वाभाविक लगा । यह पहली बार था और था भी रातके समय, परसों । कल रात मैंने कुछ नहीं देखा - अभीतक वही पहली बार और अंतिम बार था जो मैंने यह देखा ।

 

   लेकिन यह सूक्ष्म-भौतिक शरीरमें था?

 

यह सूक्ष्म-भौतिक शरीरमें ही रहा होगा ।

 

   लेकिन बह भौतिकमें कैसे प्रवेश करेगा?

 

यह बात मुझे नहीं मालूम... मुझे नहीं मालूम, नहीं मालूम मुझे ।

 

  साथ हीं, यह भी स्पष्ट था कि इस समयकी तरह पाचन और निष्कासन- की कोई जटिल विधि नहीं होनी चाहिये । ऐसा नहीं था ।

 

  लेकिन कैसे?... स्पष्ट है कि भौजन अब भी बिलकुल भित्र है और: अधिकाधिक भिन्न होता जा रहा है (उदाहरणके लिये, ग्लूकोज, ऐसी चीजें जिनके लिये जटिल पाचनकी जरूरत नहीं रहती) । लेकिन स्वयं शरीर किस तरह बदलेगा? पता नहीं, मुझे पता नहीं ।

 

  मैंने यह देखनेके लिये उसपर निगाह नहीं डाली कि वह कैसा है, क्यों- कि वह बिलकुल स्वाभाविक था, इसलिये मैं विस्तृत वर्णन नहीं दे सकती । बस, वह न तो पुरुषका शरीर था, न स्त्रीका -- यह स्पष्ट है और उसकी रूप-रेखा, उसका आकार ठीक वैसा था जैसा बहुत-बहुत युवा ब्यक्तिका हो । मानव आकारके साथ-साथ कुछ-कुछ सादृश्य था (माताजी हवामें रेखाएं बनाती हैं), उसमें कंधा था, एक आकृति थी । मानों मानव शरीरका सादृश्य । मैं उसे देखती हू, लेकिन... मैंने उसे ऐसे देखा जैसे कोई अपने-आपको देखता है । मैंने एक प्रकारका परदा-सा डाल रखा था, यूं, अपने-आपको ढकनेके लिये ।

 

   वह सत्ताका एक प्रकार था (मेरे लिये आश्चर्यजनक न था), वह सत्ता- का एक स्वाभाविक रूप था ।

 

सूक्ष्म-भौतिकमें वह ऐसा ही होगा ।

 

   जी नहीं, जो चीज रहस्यमय मालूम होती है वह है एकसे दूसरेमें संक्रमण ।

 

 हां, कैसे?

 

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लेकिन यह वही रहस्य है जैसे बंदरमेंसे मनुष्यमें प्रवेश ।

  

जी नहीं । यह उससे बहुत ज्यादा बड़ा है, माताजी । यह बहुत ज्यादा बड़ा है, क्योंकि आखिर बंदर और मनुष्यके बीच बहुत अधिक फर्क नहीं है ।

 

लेकिन यहां देखनेमें बहुत अधिक फर्क न था ( माताजी हवामें रेखाचित्र बनाती है) : कंधे थे, भुजाएं थीं, शरीर था, ऐसा कद था, पैरोंके जैसे अंग भी थे. । सब कुछ वही था, केवल वह...

 

  जी, मेरे कहनेका मतलब यह है कि बंदर और मनुष्यकी शारी- रिक क्रियाएं एक-सी होती हैं ।

 

 हां, एक-सी होती है ।

 

 जी हां, वे सांस लेते, खाना हजम करते आदि... जब कि यहां....

 

नहीं, उसमें .श्वासोवास रहा होगा - इसके विपरीत, उसके कंधे बहुत ज्यादा चौड़े थे (मुद्रा) । यह महत्त्वपूर्ण है । हां, छाती न स्त्री जैसी थी, न पुरुष जैसी, एक सादृश्य था । और फिर यह सब -- पेट, आमाशय आदि, बस रेखाएं-सी थीं, बहुत छरहरा और बहुत सामंजस्यपूर्ण रूप । लेकिन उसका वह उपयोग न था जो हमारे शरीरका होता है ।

 

  दो चीजें बहुत-बहुत भिन्न थीं : पहली - प्रजनन, जिसकी वहां कोई संभावना न थी, और दूसरी -- भोजन । लेकिन यह बिलकुल स्पष्ट है कि अब जो भोजन है वह बंदरका या आदिम मानवका भोजन न था । यह बद्रुत ज्यादा भिन्न है । अब प्रश्न है कोई ऐसे भोजन ढूढ़ निकालनेका जिसके लिये जटिल पाचन-क्रियाकी जरूरत न हो... । यहां मुझे लगता है कि भोजन पूर्णत: द्रव न होना चाहिये, लेकिन ठोस भी नहीं । और फिर, मुखका प्रश्न है -- पता नहीं । और तब दांत? स्पष्टत: तब चबानेकी जरूरत न होगी, इसलिये दांतोंका कोई... । लेकिन उनकी जगह कुछ होना चाहिये... । यह मैं बिलकुल नष्टकी जानती, बिलकुल, बिलकुल नहीं जानती कि चेहरा कैसा था, लेकिन वह वर्तमान चेहरेसे बहुत भिन्न नहीं प्रतीत होता था ।

 

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 स्पष्टतः जिस चीजमें बहुत अधिक फर्क पड़ेगा वह है श्वास, उसका महत्व बहुत बढ़ गया था । यह सत्ता बहुत हदतक उसपर आश्रित थी ।

 

     जी हां, शायद वह सीधी ऊर्जाओंको आत्मसात् करती होगी ।

 

हां, शायद मध्यवर्ती सत्ताएं होंगी जो बहुत अधिक समयतक न चलेगी, जैसे बन्दर और मनुष्यके बीचकी सत्ताएं थीं ।

 

   लेकिन मुझे पता नहीं, ऐसा कृउछ होना चाहिये जो अभीतक नहीं हुआ है ।

 

       जी हां ।

 

 ( मौन)

 

    कभी-कभी मुझे लगता है कि सिद्धिका समय नजदीक ही छै ।

 

 हा, लेकिन कैसे?

 

      जी हां, कैसे? पता नहीं ।

 

क्या यह (माताजी अपने शरीरकी ओर इशारा करती है), क्या यह बदलने- वाला है? इसे बदलना चाहिये या फिर इसे अपने-आपको नष्ट करने और फिरसे बनानेकी पुरानी पद्धतिका अनुसरण करना होगा... । पता नहीं... । निश्चय ही, जीवनको बहुत लंबा किया जा सकता है, इसके उदाहरण हैं, लेकिन... । पता नहीं ।

पता नहीं ।

 

   बहुत बार मुझे ऐसा लगा है मानों रूपांतरकी जगह वह दूसरा श२रि ही मूर्त्त रूप लेगा ।

 

आह!... लेकिन कैसे?

 

   बह भी, संक्रमण, कुछ पता नहीं । लेकिन इसके वह बननेकी जगह वह इसकी जगह लेगा ।

 

हां, लेकिन कैसे?

 

   जी हां, कैसे, मुझे पता नहीं ।

 

(कुछ देर मौन रहनेके बाद) हां, मैं परसों रात जो व्यक्ति थी, स्पष्टत: अगर वह अपने-आपको मूर्त रूप दे... । लेकिन कैसे?

 

(माताजी चिन्तन करती हैं)

 

   आदमी कुछ नस्ली जानता!

 

   आश्चर्य है कि आदमी कैसे कुछ भी नहीं जानता ।...

 

(मौन)

 

माताजी, 'द ट्रांस्फर्मेशन' ('रूपांतर') नामक कवितामें श्रीअरविन्द इस तरह शुरू करते हैं : ''मेरा श्वास सूक्ष्म लयबद्ध सरितामें बहता है; बह मेरे अंगोंको एक दिव्य शक्तिसे भर देता है....''

 

श्वास, हा, यह महत्त्वपूर्ण है ।

 

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